राजस्थान में भारत छोड़ो आन्दोलन का सिंहावलोकन :-
रियासतों में जन आन्दोलनों के दौरान लोगों को अनेक प्रकार के जुल्मों एवं यातनाओं का शिकार होना पड़ा। किसान आंदोलनों,जनजातीय आंदोलनों आदि ने राष्ट्रीय जागृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये स्वस्फूर्त आन्दोलन थे। इनमे सामन्ती व्यवस्था की कमजोरियां उजागर हुई। यध्यपि इन आन्दोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था ,परन्तु निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज के स्वर बहुत तेज हो गया ,जिससे तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को आलोचना का शिकार होना पड़ा। यदि आजादी के पश्चात राजतंत्र तथा सामन्त प्रथा का अवसान हुआ ,तो इसमें इन आंदोलनों की भूमिका को ओझल नहीं किया जा सकता है। अनेक देशभक्तों को प्राणों की आहुति देनी पड़ी। शहीद बालमुकुन्द बिस्सा ,सागरमल गोपा आदि का बलिदान प्रेरणादायक स्रोत बने। प्रजामण्डल आंदोलनों से राष्ट्रीय आंदोलन को संबल मिला। प्रजामण्डलों ने अपने रचनात्मक कार्यों के अंतरगर्त सामाजिक सुधर ,शिक्षा का प्रसार ,बेगार प्रथा के उन्मूलन एवं अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये। यह कहना उचित नहीं है कि राजस्थान में जनआंदोलन केवल संवैधानिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए था ,स्वतन्त्रता के लिये नहीं। डॉ एम् एस जैन ने उचित ही लिखा है ,स्वतन्त्रता संघर्ष केवल बाह्य नियंत्रण के विरुद्ध ही नहीं होता ,बल्कि निरकुंश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष भी इसी श्रेणी में आते है। चूँकि रियासती जनता दोहरी गुलामी झेल रही थी। अतः उसके लिये संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति तथा उत्तरदायी शाशन की स्थापना से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती थी।
रियासतों में शासकों का रवैया की खादी प्रचार ,स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं जैसे रचनात्मक कार्यों को भी अनेक रियासतों में प्रतिबंधित कर दिया गया था। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध होने के कारण जन चेतना के व्यापक प्रसार में अड़चनें आयी। ऐसी कठिन परिस्थितियों में लोक संस्थाओं की भागीदारी कठिन थी। जब तक कांग्रेस ने अपने हरिपुरा अधिवेशन (1938 )में देशी रियासतों में चल रहे आंदोलनों को समर्थन नहीं दिया ,तब तक राजस्थान की रियासतों में जन आन्दोलन को व्यापक समर्थन नहीं मिल स्का। हरिपुरा अधिवेशन के पश्चात रियासती आन्दोलन राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ गया।
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