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Monday, August 6, 2018

भारत में बाढ़ से प्रति वर्ष 2000 से अधिक जाने जाती है

भारत में बाढ़ से प्रति वर्ष 2000 से अधिक जाने जाती है।   जब भारी अथवा निरन्तर वर्षा के कारण नदियों का जल अपने तटबंधों को तोड़कर बहुत बड़े क्षेत्र में फैल जाता है तो उसे बाढ़ कहते हैं।वर्षा ऋतु में वर्षा का यह असमान वितरण भारत में प्राकृतिक आपदाओं का कारण बनती है।प्रत्येक वर्ष भारत के किसी क्षेत्र में बाढ़ आती है।भारत में 4 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र माना जाता है।।                           अपने विशाल आकार एवं मानसुनी जलवायु के कारण ये दोनों प्राकृतिक आपदाएं भारत को प्रभावित करती हैं भारतीय जनमानस अपने स्वभाव व सहज संतोषी वृति के कारण ईश्वरीय प्रकोप मानकर सदियों से इन आपदाओं को सहता आ रहा हैं।।                                                                        बाढ़ के कारण
                      भारी वर्षा के चलते नदी जलग्रहण क्षेत्र में प्रभावित जल को पर्याप्त प्रवाह मार्ग उपलब्ध नहीं होने से साथ बहकर चारों ओर फैलाने लगता है।वर्षा ऋतु में पानी के साथ बहकर आये अवसाद नदी मार्ग को संकड़ा व उथला कर देते हैं जिसके कारण पानी किनारों के बाहर फैल कर बाढ़ की शक्ल ले लेता है।धरातल से वनों का व चरागाहों के लगातार विनाश भी इसके लिए जिम्मेदार है।इनके अतिरिक्त नदी प्रवाह मार्गों का निर्माण, परम्परागत जलग्रहण क्षेत्रों को नष्ट करना तथा प्राकृतिक रूप से जल प्रवाह स्वरूप की उपेक्षा कर निर्माण कार्य बाढ़ के कारण बनते है। ।।                                भारत में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र
                                       भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र वर्षा के वितरण से निर्धारित है। भारत में बाढ़ो से होने वाली 90 प्रतिशत से अधिकक्षति उत्तरी एवं उत्तरी पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में होती है। भारत के उत्तर-पश्चिम में बहने वाली नदियां सतलज, व्यास, रावी,चिनाब व झेलम से बाढ़ की भयंकरता कम होती है जबकि पूर्व में बहने वाली गंगा, यमुना, गोमती, घाघरा व गंडक आदि नदियों से अपेक्षाकृत अधिक बाढ़ आती है। 80लाख हैक्टर क्षेत्र बाढ़ से सर्वाधिक प्रभावित होता है। 35 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में फसलें नष्ट हो जाती है। 3 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।आर्थिक रूप से लगभग एक हजार करोड़ रूपयों की हानि प्रतिवर्ष देश में होती है।बाढ़ का सर्वाधिक प्रभाव पशुधन पर पड़ता है।लगभग 12 लाख पशुधन को हानि उठानी पड़ती है। 12 लाख से अधिक मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। । ।।                  1.व्यत्तिगत स्तर पर । 2.

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संयुक्त राष्ट्र संघ को आज के विश्व का प्रभावशाली

संयुक्त राष्ट्र संघ को आज के विश्व का प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय मंच कहा जा सकता है।आशावादी लोगों ने तो संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय इसकी आत्मा में विश्व सरकार के दर्शन किए थे, लेकिन यह कोरा अतिवाद ही सिद्ध हुआ।सयुंक्त राष्ट्र संघ के द्वितीय महासचिव रहे डेग हेमरसोल्ड ने इस सत्य को स्वीकार करने में कोताही नहीं बरती और कहा कि सयुंक्त राष्ट्र संघ का गठन मानवता को स्वर्ग तक पहुचाँने के लिए नहीं बल्कि उसे नर्क से बचाने के लिए हुआ है।ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल ने चुटकी लेते हुए बताया कि हथियारों की लड़ाई से बेहतर है जुबान जंग।यह बेहतर होगा कि एक ऐसा विश्व मंच बने जहाँ दुनिया के सारे देश एकत्रित हों और एक-दुसरे का सिर खाएं न कि सिर कलम करें।।                          सयुंक्त राष्ट्र संघ की स्थापना विश्व के पाँच प्रमुख राष्ट्र-अमेरिका, रूस,चीन फ्रांस तथा ब्रिटेन द्वारा समर्थन करने के बाद24अक्टूबर 1945 को हुई थी।इस दिवस को स्थाई रूप से सयुंक्त राष्ट्र दिवस कहा जाता है।सयुंक्त राष्ट्र की महासभा की पहली बैठक 10जून1946 को लंदन में हुई, जहाँ केवल तीन महीने पहले राष्ट्र संघ को समाप्त करने के लिए राष्ट्र संघ की असैम्बली की आखिरी बैठक हुई थी।सयुंक्त राष्ट्र के चार्टर में 111 अनुच्छेद है, जिनमें इसके संगठन, शक्तियों तथा कार्यों का उल्लेख किया गया है।सयुंक्त राष्ट्र की सदस्यता जो प्रारंभ में ही सयुंक्त राष्ट्र मेंशामिल हो गए थे तथाजिन्होंने सान-फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था सयुंक्त राष्ट्र के मूलतः51सदस्य थे।इस प्रकार वे सभी शान्तिप्रिय राज्य जो वर्तमान चार्टर में दिए गये दायित्वों तथा नैतिक बन्धनों को मानते हैं-सयुंक्त राष्ट्र संघ में शामिल हो सकते है।सयुंक्त राष्ट्र संघ में किसी भी देश को सदस्यता सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा दी जाती है।आज सयुंक्त राष्ट्र के कुल 193वां सदस्य देश 2006 में माँन्टैनेग्रो बना। । ।।                विश्व को युद्ध की विभिषिका से बचाना।  2.अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवम् सुरक्षा बनाए रखना।  3.सभी सदस्य सयुंक्त राष्ट्र संघ को हर प्रकार से सहायता देगें।  4.राज्यों की भू-अखण्डता के विरुद्ध धमकी या बल प्रयोग से परहेज नहीं करेगा।  5. सयुंक्त राष्ट्र संघ किसी भी राज्य के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
 6. झगड़ों का निपटारा शान्तिपूर्ण करेंगे।
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Sunday, August 5, 2018

गुरु गोविन्द सिंह का जीवन परिचय

गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे। ये सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरु हुए। पंजाब पर औरगंजेब के अत्याचारों का विरोध करने हेतु उन्होंने शस्त्र एंव शास्त्र शिक्षा हेतु शिक्षण केंद्रों का विकास किया इससे सिक्ख संप्रदाय सक्षम बना।लाहौर के सूबेदार को नदौण के युद्ध में पराजित किया। सिक्खो को सुसंगठित करने के उद्देश्य से खालसा पंथ की स्थापना 1699ई़ में की बलिदान पांच भक्तों द्वारा पंच प्यारों, पाहुल चरणामृत एवं अमृत छकाणा पताशे घुला पानी की नई प्रथा प्रारंभ की। खालसा पंथ के सिक्खों को पांच ककार अर्थात् कड़ा केश कच्छ, कृपाण और कंघा रखना आवश्यक था। औरंगजेब से युद्ध की एक सैनिक केंद्र खोल दिया ।गुरु गोविंद सिंह धार्मिक स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय उन्नति का ऊँचा आदर्श रखते हुए सिक्खों के उत्कर्ष मे लगे रहे। 1705ई़ में मुगलों के आक्रमण के कारण उन्हें आनन्दपुर छोड़ना पड़ा।आनन्दपुर में छूटे दोनों पुत्रों जोरावर सिंह व फतहसिंह को कैद कर सरहिन्द के किले में जिन्दा चुनवा दिया गया, परन्तु उन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया। चमकोर के युद्ध में अपने अन्य दो पुत्र अजीत सिंह व जुंझार सिंह शहीदह हुए। खुदराना के संघर्ष में चालिसा सिक्खों ने वीरगति प्राप्त की, उन्हें मुक्ता एवं स्थान को मुक्तसर कहा गया।गुरु गोविन्दसिंह आनन्दपुर से अन्ततः तलवड़ी पहुंचे जहाँ एक वर्ष तक उन्होंने साहित्यिक लेखन का कार्य किया। औरंगजेब के निमंत्रण पर वे मिलने जा रहे तभी उन्हें औरगंजेब की मृत्यु का समाचार मिला।1अक्टूबर1708ई़ को गुरु गोविन्द सिंह भी परलोक सिघार गये।
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बिस्मार्क का विश्व में योगदान एवं युद्ध

1861ई़ में प्रशा फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ की मृत्यु हो जाने पर 64वर्षीय विलियम प्रथम शासक बना। विलियम प्रथम वानमोल्टेक को प्रमुख सेनापति बनाया। तब इस गतिरोध को दुर करने के लिए विलियम प्रथम ने बिस्मार्क को अपना चांसलर नियुक्त किया। बिस्मार्क का मानना था कि 1848 से 1849ई़ तक का जो समय राष्ट्रवादियों ने वाद विवाद में समाप्त कर दिया वह उनकी भूल थी।बल्कि रक्त और लौह की नीति से सुलझ सकती थी।
1.डेनमार्क से युद्ध एवं गेस्टाईन सन्धि श्लेसविग हाँल्सटाइन दो डचियों पर डेनमार्क का अधिकार था।हाँल्सटाइन की अधिकांश जनसंख्या र्जमन थी,डेन लोग र्जमनी के एकीकरण का विरोधी थे। लेकिन 10वर्ष वाद ही 1863 ई़ डेनमार्क के शासक फ्रेडरिक ने इन दोनों रियासतों पर अधिकार कर लिया। इस प्रश्न पर बिस्मार्क को राजनीतिक योग्यता और कुटनीति कुशलता दिखाने का अवसर मिल गया। बिस्मार्क इस अवसर का लाभ उठाकर आस्ट्रिया को जर्मनी से बाहर करके जर्मन संघ को समाप्त करना चाहता था।जनवरी 1864ई़ में दोनों डचियों को लेकर प्रशा और आस्ट्रिया के मध्य समझौता हुआ।दोनों डचियों के अधिकार को लेकर 14अगस्त 1865ई़ को गेस्टाइन नामक स्थान पर विलियम और फ्रांसिस जोसफ दोनों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।।                 1.आस्ट्रिया प्रशा एवं प्राग की संधि इग्लैण्ड यूरोपीय राज्यों में हस्तक्षेप न करने की नीति पर चल रहा था। 1866ई़ में प्रशा और सार्डिनिया में समझौता हुआ जिसके अनुसार सार्डीनिया आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध छेड़ता है तो वेनेशिया उसे दिलवा दिया जायेगा।लेकिन 3जुलाई 1866ई़ को सेडोवा कोनिग्राज का निर्णायक युद्ध हुआ।आस्ट्रिया व प्रशा के मध्य 23अगस्त 1866ई़ को प्राग की सन्धि हुई।।                                      
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छत्रपति शिवाजी महाराज का इतिहास

20अप्रैल 1627ई.को शिवाजी के दुर्ग मे शिवाजी का जन्म हुआ। शाहजी भोसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई के पुत्र थे।शाहजी बीजापुर के एक सामंत थे, जिन्होंने तुकाबाई मोहिते नामक एक अन्य स्त्री से विवाह कर लिया था इसी कारण जीजाबाई उनसे अलग रहती थी। बालक शिवाजी का लालन-
पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव तथा जीजाबाई के गुरु समर्थ स्वामी रामदास की देखरेख में हुआ। जिन्होंने उन्हें मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेरित किया। दादाजी कोंणदेव से उन्होंने सेना और शासन की शिक्षा पायी थी। 12 वर्ष की अल्पायु में शिवाजी ने अपने पिता से पूना की जागीर प्राप्त की। सर्वप्रथम 1646 ई. में 19 वर्ष की आयु में उन्होंने कुछ मावले युवको का एक दल बनाकर पूना के निकट स्थित तोरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 1646 ई. में ही उन्होंने बीजापुर के सुल्तान से रायगढ़, चाकन तथा 1647 ई. में बारामती, इन्द्रपुर, सिंहगढ़ तथा पुरन्दर का दुर्ग भी छीन  लिया। 1656 में शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जावली का दुर्ग भी अधिकृत कर लिया। 1659 ई. में अफजल खाँ नामक अपने सेनापति को उनका दमन करने के लिए भेजा। संधिवार्ता के दौरान अफजल खाँ द्वारा धोखा देने पर शिवाजी ने बघनखे से उसका पेट फाड़ डाला।  1663 ई. में दक्कन के मुगल वायसराय शायस्ता खाँ को शिवाजी के दमनार्थ औरंगजेब ने नियुक्त किया, जिसने शिवाजी के केन्द्र स्थल पूना पर अधिकार कर लिया। लेकिन शीघ्र ही शिवाजी ने शायस्ता खाँ के शिविर पर रात्री में आक्रमण किया, जिसमें उसे अपना एक पुत्र और अपने हाथ की तीन उँगलियाँ गवांकर भागना पड़ा। 1664 ई. में शिवाजी ने  मुगलों के अधीन सूरत को लूटा। इन सभी गतिविधियों से क्रूद्ध होकर औरंगजेब ने अपने मंत्री आमेर के राजा मिर्जा जयसिंह और दिलेर खान को भेजा। मुगल सेना ने उनके अनेक किले अधिकृत कर लिए। विवश होकर शिवाजी ने जयसिंह के साथ 1665 ई. में संधि कर ली जो पुरंदर की संधि के नाम से विदित है। इस संधि के निम्न प्रावधान थे-                                                          1.      शिवाजी ने अपने कुल 35 दुर्गो में से 23 मुगलों को सौंप दिये और मात्र 12 अपने पास रखे, और।                      2.      शिवाजी के बड़े पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में पाँच हजारी मनसबदार बनाया गया।                                           मई , ‌‌‌‌‌‌‌‌1666 ई. में शिवाजी को राजा जयसिंह द्वारा कैद कर लिया गया । लेकिन नवम्बर, 1616 ई में वह गुप्त कैद से भाग गए। 1680 ई. में शिवाजी की  ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌मृत्यु  हो गई।

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भारत में प्रमुख समुद्री पत्तन व बन्दरगाह एवं हवाई पत्तन

भारत की 7516.6 किलोमीटर लम्बी समुद्री तट रेखा के साथ 12 प्रमुख तथा 187 के मध्य व छोटे पत्तन एवं बन्दरगाह है। बन्दरगाहों पर समुद्री जहाजों के रुकने, ईंधन लेने तथा सामानों को उतारने चढ़ाने का कार्य किया जाता है।स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कच्छ में कांडला पत्तन पहले पत्तन के रूप में विकसित किया गया।ऐसा देश विभाजन से करांची पत्तन की कमी को पूरा करने तथा मुंबई से होने वाले व्यापारिक दबाब को पूरा करने के लिए था।कांडला एक ज्वारीय बन्दगाह है।यह जम्मू-कश्मीर, हिमालय प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व गुजरात के औद्योगिक तथा कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात को संचालित करता है।।                              मुम्बई पत्तन के अधिक परिवहन को ध्यान में रखकर इसके सामने जवाहरलाल नेहरू पत्तन विकसित किया गया । जो पूरे क्षेत्र को एक समूह पत्तन की सुविधा भी प्रदान कर सके।लौह अयस्क के निर्यात के संदर्भ में मारमागाओं पत्तन देश का महत्वपूर्ण पत्तन है। कर्नाटक में स्थित न्यू मैंगलौर पत्तन कुद्रमुख खानों से निकले लौह अयस्क को निर्यात करता है।सुदूर दक्षिण पश्चिम में कोच्ची पत्तन है, यह एक लैगुन के मुहाने पर स्थित है। प्राकृतिक पोताश्रम है।।                         पूर्वी तट के साथ तमिलनाडू में दक्षिण पूर्वी छोर पर तूतीकोरिन पत्तन है।यह एक प्राकृतिक पोताश्रम है तथा इसकी पष्ठभूमि भी अत्यंत समृद्ध है।अतः यह पत्तन हमारे पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका, मालदीव आदि तथा भारत के तटीय क्षेत्रों की भिन्न वस्तुओं के व्यापार को संचालित करता है।चेन्नई की गणना देश के प्राचीनतम बन्दरगाहों में की जाती है जबकि विशाखापट्टनम देश का सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक बन्दरगाह है। ओडिशा में स्थित पारा द्वीप पत्तन विशेषतः लौह अयस्क का निर्यात करता है। कोलकाता एक अंतः स्थलीय नदीय पतन है। यह सागर तट से 148 किलोमीटर अन्दर हूगली नदी के किनारे स्थित है।

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पृथ्वीराज चौहान का जीवन परिचय

सोमेश्वर देव की मृत्यु के बाद पृथ्वीराज चौहान 11 वर्ष की अल्पायु में सिहांसन पर बैठा। माता कर्पूरीदेवी अपने अल्पव्यस्क पुत्र के राज्य की संरक्षिका बनी।अपने मंत्री व सेनापति के सहयोग से पृथ्वीराज ने शासन चलाया। उसने अपने विश्वस्त सहयोगियों को उच्च पदों पर नियुक्त किया।
              साम्राज्य विस्तार की दृष्टि से पृथ्वीराज चौहान ने पड़ोसी राज्यों के प्रति दिग्विजय नीति का अनुसरण किया। 1182 ई. में महोबा के चन्देल शासक को पराजित किया। इसके उपरांत पृथ्वीराज चौहान का चालुक्यों से एवं कन्नौज के गहड़वालों से संघर्ष हुआ।
                  सन् 1178 में गजनी के शासक मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर आक्रमण किया । यहां के शासक भीमदेव चालुक्य ने खासहरड़ के मैदान में गौरी को बुरी तरह परास्त किया। गौरी ने सीमा प्रान्त के राज्य सिलायकोट और लाहोर पर अधिकार किया। सन् 1186 से 1191 ई. तक मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान से कई बार पराजित हुआ। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार 07 बार, पृथ्वीराज प्रबन्ध में 08 बार, पृथ्वीराज रासो में 21 बार, प्रबन्ध चिन्तामणि में 23 बार मोहम्मद गौरी के पराजित होने का उल्लेख है। दोनों के मध्य दो प्रसिद्ध युद्ध हुए। तराइन के प्रथम युद्ध में 1191 ई. में राजपूतों के प्रहार से गौरी की सेना में तबाही मच गई तथा गौरी गोविन्दराय के भाले से घायल हो गया, उसके साथी उसे बचाकर ले गये। पृथ्वीराज चौहान ने गौरी की भागती हुई सेना का पीछा नहीं किया।
            सन् 1192 में गौरी पुनः नये ढंग से तैयारी के साथ तराइन के मैदान में आ डटा। मोहम्मद गौरी ने सन्धिवार्ता का बहाना करके पृथ्वीराज चौहान को भुलावे में रखा। गौरी ने प्रातः काल राजपूत जब अपने नित्यकार्य में व्यस्त थे, तब अचानक आक्रमण कर दिया। गोविन्दराय व अनेक वीर योद्घा युद्ध भूमि में काम आये गौरी ने भागती हुई सेना का पीछा किया व उन्हें घेर लिया। दिल्ली व अजमेर पर तुर्कों का अधिपत्य हो गया। पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है कि पृथ्वीराज चौहान को गजनी ले जाया गया, उन्हें नेत्रहीन कर दिया गया। वहाँ पृथ्वीराज ने अपने शब्द भेदी बाणों से गौरी को मार दिया और उसके बाद स्वयं को समाप्त कर दिया, किन्तु इतिहासकार इस बात पर एकमत नहीं हैं।
                 पृथ्वीराज चौहान वीर, साहसी एवं विलक्षण प्रतिभा का धनी था। पृथ्वीराज चौहान का विधा एवं साहित्य के प्रति विशेष लगाव था।जयानक, विधापति, बागीश्वर, जनार्दन, चन्दबरदाई आदि उसके दरबार में थे।
       गौरी को पर करने के बाद भी उसको पूरी तरह से समाप्त नहीं किया। डॉ. दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज चौहान को एक सुयोग्य शासक कहा है।
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