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Wednesday, October 3, 2018

महाराणा प्रताप का जीवन परिचय

महाराणा प्रताप का जन्म 

विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ शुक्ल तृतीय ,रविवार (9 मई 1540 )को कुम्भलगढ़ दुर्ग के (कटारगढ़ )"बादल महल "में हुआ। प्रताप महाराणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था।  उनकी माता का नाम जैवता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी ) महाराणा प्रताप का बचपन कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही व्यतीत हुआ। महाराणा प्रताप का विवाह 1557 में अजब दे पंवार के साथ हुआ जिनसे 16 मार्च 1559 ई.अमरसिंह का जन्म हुआ।
   महाराणा प्रताप 32 वर्ष की उम्र के थे तब उनके पिता उदयसिंह की होली के दिन 28 फरवरी ,1572 ई. को गोगुन्दा में मृत्यु  गयी। उदयसिंह का गोगुन्दा में ही दाह संस्कार किया गया। यहां स्थित महादेव बावड़ी पर 28 फरवरी 1572 ई. को मेवाड़ के सामंतों एवं प्रजा ने प्रतापसिंह का महाराणा के रूप में राजतिलक किया। महाराणा उदयसिंह द्वारा नामित उत्तराधिकारी जगमाल को मेवाड़ के वरिष्ठ सामंतों ने अपदस्थ कर दिया।

1570 ई. में अकबर का नागौर दरबार लगा जिसमे मेवाड़ के अलावा अधिकतर राजपूतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए चार दल भेजे जिनमे -
 पहली बार - जलाल खा,जिसको नवंबर ,1572 ई.में प्रताप के पास भेजा गया।
दूसरी बार - जून 1573 ई. में मानसिंह (आमेर का शासक )को प्रताप को समजाने भेजा गया।
तीसरी बार -अक्टूबर 1573 ई. में आमेर के भगवान दास को भेजा गया।
चौथी बार -दिसम्बर 1573 ई. में टोडरमल को  गया।

ये चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में असफल रहे तो अकबर ने प्रताप को युद्ध में बंदी बनाने की योजना बनाई। बंदी बनाने की योजना अजमेर में स्थित किले में  बनाई गयी जिसमे आज संग्रहालय स्थित है तथा अंग्रेजों के समय का शस्त्रागार होने के कारण इसे मैगजीन भी कहा जाता है। अकबर ने मानसिंह को इस युद्ध का मुख्य सेनापति बनाया तथा मानसिंह का सहयोगी आसफ खां को नियुक्त किया गया।

  मानसिंह 3 अप्रैल 1576 को शाही सेना लेकर अजमेर से रवाना हुआ उसने पहला पड़ाव मांडलगढ़ में डाला ,दो माह तक वहीं पर रहा उसके बाद वह आगे नाथद्धारा से लगे हुए खमनौर के मोलेला नामक गांव के  पास अपना पड़ाव डाला। उधर  शाही सेना के आगमन की सूचना महाराणा प्रताप को मिल गयी थी।

महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा और खमनौर की पहाड़ियों के मध्य स्थित हल्दी घाटी नामक तंग घाटी में अपना पड़ाव डाला। इस घाटी में एक बार में एक आदमी ही प्रवेश कर सकता था। इसलिए सैनिकों की कमी होते हुए भी महाराणा प्रताप के लिए मोर्चाबंदी के लिए यह सर्वोत्तम स्थान था जहां प्रताप के पहाड़ों से परिचित सैनिक आसानी से छिपकर आक्रमण कर सकते थे। वहीं मुगल सैनिक भटक कर  मेवाड़ के सैनिकों से टकराकर या भूखे प्यासे मरकर जीवन गंवा सकते थे। अंत में दोनों सेनाएं 18 जून 1576 को प्रातः काल युद्ध भेरी के साथ आमने -सामने हुई।

  राजपूतों ने मुगलों पर पहला वार इतना आक्रामक किया कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचाकर भागे। इस प्रथम के चरण के युद्ध में हकीम खां सूर का नेतृत्व सफल रहा। मुगल इतिहासकार बंदायूनी ,जो की मुगल सेना के साथ था ,वह स्वयं भी उस युद्ध से भाग खड़ा हुआ। मुगलों की आरक्षित फौज के प्रभारी मिहतर खां ने यह जूठी अफवाह फैला दी कि "बादशाह अकबर "स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे है। अकबर के सहयोग की बात सुनकर मुगल सेना की हिम्मत बंधी और वो पुनः युद्ध के लिए तत्पर आगे बढ़ी। राजपूत भी पहले मोर्चे में सफल होने के बाद बनास नदी के किनारे वाले मैदान में जिसे "रक्तलाल" कहते है में आ जमे। इस युद्ध में राणा की ओर से पूणा व  रामप्रसाद और मुगलों की ओर से गजमुक्ता व गजराज के मध्य युद्ध हुआ। रामप्रसाद हाथी  के महावत के मारे जाने कारण रामप्रसाद हाथी मुगलों के हाथ लग गया। रामप्रसाद हाथी अकबर के लिए बड़े महत्व का था ,जिसका नाम  अकबर ने पीर प्रसाद कर दिया था।

महाराणा प्रताप की नजर मुगल सेना के सेनापति मानसिंह पर पड़ी। स्वामिभक्त घोड़े चेतक ने स्वामी का संकेत समजकर अपने कदम उस ओर बढ़ाये ,जिधर मुगल सेनापति मानसिंह "मरदाना "नामक हाथी पर बैठा हुआ था। चेतक ने अपने पैर हाथी के सिर पर टिका दिए। महाराणा प्रताप ने अपने भाले का भरपूर प्रहार मानसिंह पर किया परन्तु मानसिंह हौदे में छिप गया और उसके पीछे बैठा अंगरक्षक मारा गया व हौदे की छतरी का एक खम्भा टूट गया। इसी समय हाथी की सूँड में बंधे हुए जहरीले खंजर से चेतक की टाँग कट गयी।
उसी समय मुगलों की शाही सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया। बड़ी सादड़ी का झाला मन्ना सेना को चीरते हुए राणा के पास पहुंचा और महाराणा से निवेदन किया कि "आप राजचिन्ह उतार कर मुझे दे दीजिए और आप इस समय युद्ध के मैदान से चले जाइये इसी में मेवाड़ की भलाई है। "चेतक के घायल होने की स्थिति को देखकर राणा ने वैसा ही किया। राजचिन्ह के बदलते ही सैंकड़ों तलवारें झाला मन्ना पर टूट पड़ी। झाला मन्ना इन प्रहारों का भरपूर सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।

महाराणा प्रताप का स्वामिभक्त घोडा चेतक बलीचा गांव में स्थित एक छोटा नाला पार करते हुए परलोक सिधार गया। इसी जगह "ब्लीचा गांव "में चेतक छतरी बनी हुई है। महाराणा प्रताप कभी भी किसी भी परिस्थिति में नहीं रोए परन्तु चेतक  की मृत्यु पर उनकी आँखों में आँसू निकल पड़े। उसी समय "ओ नीला घोडा रा असवार "शब्द राणा ने सुने। प्रताप ने सिर उठाकर देखा तो सामने उसके भाई शक्तिसिंह को पाया। शक्तिसिंह ने अपनी करनीं पर लज्जित होकर बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना की ,महाराणा प्रताप ने उन्हें गले लगाया और क्षमा कर दिया।
 इसकी जनकरी हमें "अमर काव्य वंशावली ग्रन्थ व राजप्रशस्ति "से मिलती है ,जिसकी रचना संस्कृत भाषा में रणछोड़भट्ट नामक विद्धान ने की।


अकबर का उद्देश्य महाराणा प्रताप को जीवित पकड़कर मुगल दरबार में खड़ा करना अथवा मार देना था या फिर उसका सम्पूर्ण राज्य अपने साम्राज्य में मिला लेना था ,लेकिन अकबर इन उद्देश्यों में विफल रहा।

1597 ई. में धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए महाराणा प्रताप के चोट लगी ,जिसके कारण 19 जनवरी 1597 को उनकी चावंड गांव में मृत्यु हो गयी। चावंड गांव से 11 मील दूर बांडोली गांव के निकट बहने वाले नाले के तट पर महाराणा प्रताप का दाह संस्कार किया गया। खेजड़ बांध के किनारे 8 खम्भों की छतरी आज भी हमें उस महान योद्धा की याद दिलाती है।
             प्रताप की मृत्यु का समाचार अकबर के कानों तक पहुंचा तो उसे भी बड़ा दुःख हुआ। इस स्थिति का वर्णन अकबर के दरबार में उपस्थित दुरसा आढा ने इस प्रकार किया -"अस लेगो अणदाग ,पग लेगो अणनामी गहलोत राण जीती गयो दसण मूँद रसणा उसी ,नीसास मूक मरिया नयण तो मृत शाह प्रतापसी "आशय यह  था कि राणा प्रताप तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दाँत में जीभ दबाई और नि:श्वास से आँसू टपकाये क्योंकि तूने अपने घोड़े को नहीं दगवाया और अपनी पगड़ी किसी के सामने नहीं झुकाई वास्तव में तू सब तरह से जीत गया।

  विदेशी इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को "मेवाड़ की थर्मोपल्ली "और दिवेर को "मेवाड़ का मैराथन "कहा है।  
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